मुझे देशहित मरना पड़े, तो ये जिसमोजान निसार है,
मेरे ज़ेहन में है वतन, मुझे हिन्दोस्तान से प्यार है.
अल्फ़ाज़ की ना कमी कोई, फिर भी बायां ना हो सके,
ये वतनपरस्ती दिल में है, मुश्किल मग़र इज़हार है.
अगले जनम इंसा बनूँ, या की बनू मैं जानवर,
हर हाल में मुझको जनम, इस देश में स्वीकार है.
हर छोर एक-एक अंग सा, है जीताजागता रूप ये,
धरती पे इस आकार-सा, बस एक ही आकार है.
हिन्दू, मुसलमां, सिक्ख और ईसाइयत के फूल से,
गुलशन सजा है इस क़दर, जहां वर्ष भर ही बहार है.
~ तारेश दवे