वो रह गया है ज़िन्दगी में किताबों की तरह
सजा रखा है मग़र काम कुछ नहीं आता...
था सरफिरा हक़ीम जो ये दवा दे के गया
मैं ले तो लूं मग़र आराम कुछ नहीं आता...
है हाथ में मेरे पितल का पुराना-सा चराग़
मैं बेच भी दूं मग़र दाम कुछ नहीं आता...
लगे हुए हैं साज़िशों में मेरे दोस्त सभी
मेरी नज़र में सुबह शाम कुछ नहीं आता...
मुझे गिरा के गुज़र जाता है सौ बार मग़र
मेरे रक़ीब पर इल्जाम कुछ नहीं आता...
~ तारेश दवे
रक़ीब: प्रतिद्वंदी